राजस्थान में जनजातियाँ
राजस्थान की प्रमुख जनजातियां
राजस्थान में अनुसुचित जनजाति की कुल जनसंख्या 70.98 लाख है । भारत में 835.61 लाख है । राजस्थान की कुल जनसंख्या में जनजाति जनसंख्या का अनुपात 12.56 % है । भारत में 8.14 % जनजाति की जनसंख्या के आधार पर राजस्थान राज्य मध्यप्रदेश , महाराष्ट्र , उडीसा , बिहार , गुजरात के बाद छठा स्थान है । अनुपात की दृष्टि से 13 वां स्थान है । राजस्थान में जनजातियों की सर्वाधिक जनसंख्या उदयपुर में तथा न्यूनतम जनसंख्या बीकानेर में हैं

राजस्थान में जनजाति में सर्वाधिक उदयपुर बांसवाडा डूंगरपूर , जयपुर , चितौडगढ में हैं राजस्थान में जनजाति में न्यूनतम बीकानेर नागौर , हनुमानगढ , चुरू , श्रीगंगानगर में है । जनसंख्या में जनजाति का सर्वाधिक अनुपात बांसवाडा में तथा न्यूनतम नागौर जिले में है । राजस्थान में जनजाति का लिंगानुपात 944 हैं तथा भारत में 978 है । राजस्थान में जनजाति की जनसंख्या दक्षिणी भाग में है । राजस्थान में कुल 12 जनजातियां निवास करती है । जिनमे मीणा , भील , गरासिया , सहरिया , सांसी , डामोर , कौडी , कंजर मुख्य है । इनके अतिरिक्त धानका . कोकना . नायकडा – नायका . कोली – ढोर.पटेलिया , भील मीणा है ।
राजस्थान में सर्वाधिक जनसंख्या मीणा जनजाति की हैं । इसके बाद भील , गरासिया , एवं सहरिया हैं राजस्थान की सबसे प्राचीन जनजाति भील है । भारत सरकार के आदिम जनजाति समूह की सूची में शामिल राजस्थान की एकमात्र जनजाति सहरिया है ।
भील
राजस्थान की दूसरी सबसे बडी जनजाति भील शब्द द्रविड भाषा के बिल शब्द का अपभ्रंश है । जिसका अर्थ है तीर – कमान । राजस्थान में भील जनजाति उदयपुर ( सर्वाधिक ) , बांसवाडा , प्रतापगढ , डूंगरपूर , भीलवाडा , सिरोही में है । कर्नल टॉड ने भीलों को वनपुत्र कहा हैं ।
भील जनजाति केसरियानाथ ( ऋषभदेव ) जी को चढी केसर का पानी पीकर कभी झूठ नहीं बोलते है । जतिगत एकता होने के कारण ढोल बजते या किलकारी सुनते ही एक जगह एकत्र हो जाते है । ‘ फाइरे – फाइरे ‘ भीलों का रणघोष है । भीलों के घर को कू कहते हैं भीलों का मोहल्ला फलां तथा बहुत से झोपडे मिलकर पाल कहते है । तथा पाल का मुखिया पालवी कहते गांव का मुखिया तदवी और वंशाओं कहलाता है । भीलों की पंचायत का मुखिया गमेती कहलाता है । मार्गदर्शक मील को बोलावा , सेनिक के घोडे को मारने वाला भील पाखरिया कहलाता हैं भीलों द्वारा दिया जानेवाला मृत्युभोज कायटा कहलाता हैं विवाह सम्बन्धों में मध्यस्ता करने वाले फुफा या मामा को बडालिया कहते है । पांडा शब्द सुनकर भील खुश होते है जबकि कांडी शब्द को गाली मानते हैं भीलों की गोत्र अटक कहलाती हैं भीलों का कुलदेवता टोटम कहते है । भीलों की वेशभूषा- वस्त्रों के आधार पर दो वर्ग लंगोटिया भील और पोतीदा भील लंगोटिया भील पुरूष खोयतु ( कमर में लंगोटी ) , भील स्त्री कछावू ( घुटनों तक का घाघरा ) पोतीदा भील धोती . बण्डी , फालू ( कमर का अंगोछा ) पहनते हैं पुरूष कुर्ता या अंगरखी तथा तंगधोती ( ढे पाडा ) पहनते है । सिर पर पोत्या ( साफा ) बांधते हैं आभूषण- स्त्रियां गले में चांदी की हंसली या चैन , सिर पर बोर , कानों में चांदी की बालियां , नाक में नथ . हाथों में छल्ले तथा पांवों में कडले व पैजनियां पहनती हैं
आजीविका – भीला की मुख्य आजीविका कृषि व वनोपज है । पहाडी मागों में वननों को जलाकर भूमि में कृषि करते है । उसे चिमाता तथा मैदानी भागों में वनों को काटकर प्राप्त भूमि में कृषि करने को दजिया कहते हैं भीलों तलाक प्रायः गांव के मुखिया की उपस्थिति में होता है जिसे छेडा फाडना कहते है । जी . एस . थॉम्पसन ने 1895 में भीली व्याकरण लिखी । भीलों द्वारा पूर्वजों की मूर्ति स्थापित कर उनकी मृत आत्माओं की पूजा की जाती है । जिसे सिरा – चौकली या चिरा बावसी कहते है ।
मीणा
राज्य की सबसे बडी व देश की अति प्राचीन जनजाति है जिसका उल्लेख मत्स्य पुराण में मिलता हैं । इन्हें मत्स्यावतार माना जाता है । मीणा का शाब्दिक अर्थ मत्स्य या मीन ( मछली ) है । जयपुर में कच्छवाह वंश का शासन प्रारम्भ होने से पूर्व आमेर में मीणाओं का शासन । विवाह में मध्यस्थता करने वाले को बडालिया कहते हैं मीणी जनजाति में लीला मोरिया संस्कार प्रचलित है । जिसका संबंध विवाह से है । मीणा जनजाति की आधी से अधिक जनसंख्या जयपुर , दौसा , सवाईमाधोपुर , करौली , व उदयपुर जिलों में निवास करती हैं मीणाओं में गोद प्रथा प्रचलन में है । इसमें तलाक की प्रकिया सरल है पति पत्नि के दुपट्टे का कुछ भाग काटकर उसके हाथ में दे देता हैं मीणा जाति की पंचायत महिला को भगाकर ले जाने वाले पुरूष से मुआवजे की राशि वसूल करती है जिसे झगडा राशि कहते है । मीणाओं की कुल देवता बुझ देवता कहलाता हैं भीलों का टोटम
आजीविका- मुख्य साधन कृषि है । बंटाईदार कृषि व्यवस्था का प्रचलन है ।
गरासिया
राजस्थान की तीसरी बड़ी जनजाति गरासिया हैं । गरासिया जनजाति को चौहान राजपूतों का वंशज माना जाता हैं । जिनका मुल स्थान बडौदा ( गुजरात ) के निकट चैनपारीन क्षेत्र हैं गरासिया जनजाति सिरोही व उदयपुर जिलों में निवास करती है कर्नल जेम्स टॉड ने गरासियों की उत्पति गवास शब्द से मानी है । जिसका अभिप्राय सर्वेन्ट है । विवाह एक संविदा माना जाता है । गरासिया में विवाह तीन प्रकार से होता है । ताणना विवाह ( तारणा विवाह ) – वर पक्ष पंचों द्वारा तय मूल्य पंचों को वैवाहिक मेंट के रूप में चुकाकर वर द्वारा पसंद कन्या को घर ले जाता हैं मौरबंधियां विवाह वर वधू के मोड बांधकर विवाह । पहरावना विवाह- बिना ब्राहम्ण के नाम मात्र के फेरे । गरासियों का घर गेर कहलाता हैं गरासिया जनजाति के किसी व्यक्ति की मृत्यु होने पर बनाए जाने वाले स्मारक हुरे कहलाते है । गरासिया जनजाति का मुखिया सहलोत कहलाता हैं गराशियों के अनाज भण्डारन की कोठियां सोहरी कहलाती हैं मोर को आदर्श पक्षी मानते है । सफेद पशुओं को पवित्र मानते हैं गरासिया जनजाति अक्षय तृतीया को नववर्ष के रूप में मानते है । गरासियों की पंचायत बूढो की परिषद कहलाती है । धार्मिक जीवन- मृत्यु के 12 वें दिन शव का अंतिम संस्कार करते हैं
गरासियों का सबसे बड़ा मेला मनखोरों मेलों ( आम आदगी का मेला ) कहलाता हैं जो सियावा ( आबूरोड ) में भरता हैं गरासिया जनजाति नक्की झील ( गाउण्ट आबू ) को पवित्र मानते है ।पुर्वजो का अस्थि विसर्जन यहीं करते हैं आजीविका- प्रकृति प्रेमी होते है । कृषि व पशुपालन इनका मुख्य व्यवसाय है । इसके अलावा लकडी काटकर जीवन यापन करते है । वेशभूषा- पुरूष धोतो , अंगरखी , बंडी . पुठियों , झुलकी पहनते है । ये वस्त्रों में कशीदाकारी को बहुत पसंद करते है । गले में हंसली , हाथों में कडले , भाटली , कानों में मुरकियां , लुंग , झोला , तंगल आदि । महिलाएं कांच जडा हुआ घाघरा . झूलकी . कुर्ती . कांचली । कानों में डोरणे , लटकन , मसियां , गले में हंसली . वाडळे , बोरली , सिर पर बोर , झेला नाक में कोटा , नथ / नथडी , पेरों में कडे ।
सहरिया
सहरिया शब्द की उत्पति फारसी शब्द सहर से हुई जिसका अर्थ में जंगल या वन में निवास करने वाले । भारत सरकार द्वारा आदिम जाति समूह में शामिल राजस्थान की एकमात्र जनजाति जो राजस्थान के बारा जिले की शाहबाद व किशनगंज तहसीलों में निवास करती हैं सहरियों का घासफूस से बना घर टापरा कहलाता है । पेंडो या बल्लियों पर मचाननुमा झोंपडी गोपना , कोरूआ या टोपा कहलाती है । सहरया जनजाति की बस्ती सहराना तथा गांव सहरोल कहलाते है । सहरिया जाति का मुखिया कोतवाल कहलाता हैं सहरिया जनजाति की महिलाएं गोदना गुदवाती हैं लेकिन पुरुषों में गोदना वर्जित हैं धार्मिक जीवन- तेजाजी सहरियों के लोक देवता होते है जिसका थान ( देवरा ) सहराना ( बस्ती ) के बाहर होता है । सहरिया जनजाति की कुलदेवी कोडिया देवी हैं सहरियों का कुम्भ सीताबाडी का कपिलधारा का मेला कहलाता है । सहरिया जनजाति आदि गुरू वाल्मिकी को अपना आराध्य देवता मानती है । आजीविका- कृषि . मजदूरी , लकडी व वनोपज एकत्रित करना । वेशभूषा- पुरूष विशेष , पकार की अंगरखी पहनते है । जो सलूका कहलाती है।तथा घुटनों तक की तंग धोती पहनते है । जो पंछा कहलाती है । सिर पर खपटा ( साफा ) बांधते है | स्त्रियां एक विशेष वस्त्र रेजा पहनती है ।
सांसी
राजस्थान के भरतपुर जिले में खानाबदोश जीवन व्यतीत करने वाली जाति । उपजातियां – बींजा व माला । मांस व शराब के शौकीन होते है , लोमडी का मांस पसंद करते हैं डामोर डामोर जनजाति डूंगरपूर जिले की सीमलवाडा पंचायत समिति तथा बांसवाड़ा जिले के गुजरात सीमा से लगे इलाकों में निवास करती हैं डामोर जनजाति का मुखिया मुखी कहलाता है । गांव की सबसे छोटी इकाई फलां होती हैं डामोर जनजाति के पुरूष मी स्त्रियों के समान ही गहने पहनने के शौकीन होते हैं डामोर जनजाति के महत्वपूर्ण मेले छेला बावजी का मेला ( पंचमहल गुजरात ) तथा ग्यारस की रैवाडी का मेला ( डूंगरपुर शहर ) इनका मुख्य व्यवसाय कृषि है ।
कथौडी
महाराष्ट्र राजय के मूल निवास इस जनजाति के लोग उदयपुर जिले की कोटडी झाडोल एवं सराडा पंचायत समिति क्षेत्र में निवास करती हैं कत्था तैयार करने का कार्य करने के कारण यह कथौडी कहलाते है । कथोडी जनजाति के लोग नाममात्र के कपडे पहनते है । पुरूष केवल लंगोट पहनते हैं स्त्रियां कमर पर फडका ( मराठी अंदाज में साडी ) पहनती है । शराब बहत प्रिय पेय पदार्थ है । महुए की शराब बनाकर पीते हैं स्त्रियां भी पुरूषों के समान शराब पीती है । शव को दफनाने का रिवाज है । कथौडी जनजाति घास – फूस व बांस का बना छोटा झोंपडा खोलरा कहलाता है ।
कंजर
कंजर शब्द संस्कृत भाषा के शब्द काननाचार का अपभ्रश हैं जिसका अर्थ है जंगल में विचरण करने वाला । अपराध वृति के लिए कुख्यात जनजाति राजस्थान में कोटा , बोरां , बूंदी . झालावाड , भीलवाडा . उदयपुर . एवं अजमेर में निवास करती हैं मंजर जाति का मुखिया पटेल कहलाता हैं हाकम राजा का प्याला पीकर कसम खाने के बाद कंजर जो भी बात करता हैं वह सच्ची होती हैं मोर का मांस प्रिय है । कंजर जनजाति के घरों में दरवाजे नहीं होते है । हनुमानजी और चौथमाता इनके आराध्य देव है । आजीविका- चोरी , डकेती , लूटमार है । जनजातियों की विशिष्ट परम्पराएं मौताणा- आदिवासी की संदिग्ध परिस्थिति में मृत्यु हो जाने पर आरोपी से वसूली गयी राशि मौताणा राशि कहते है । नातरा प्रथा- किसी स्त्री के द्वारा अन्य पुरूष के साथ जीवन बिताने हेतु समझौता करना । दापा- वर पक्ष द्वारा कन्या के पिता को दिया गया वधू मूल्य । छेडा फाडना ( तलाक ) -भील या मीणा जनजाति में पत्नी त्यागने की प्रकिया पति द्वारा पत्नी के साडी का पल्ला फाडकर स्त्री को दे देता है । जिसे छेडा फाडना कहते है । झगडा राशि- आदिवासी पुरूष द्वारा किसी दूसरे की पत्नी को भगा ले जाने पर पंचायत के द्वारा तय राशि उस स्त्री के पति द्वारा वसूली जाति है । उसे झगडा राशि कहते है । वार- जनजातियों में विपति आने पर संदेश ( मारू ढोल बजाकर ) भराडी- भील जनजाति में लोकचित्रण की परम्परा में दीवार पर लोकदेवी भराडी का चित्र बनाया जाता हैं इसे भीत भराडी भी कहते है । ळलमा ( हीडा या हांडा ) आदिवासियों में प्रचलित सामूहिक सहयोग की परम्परा । हमेलो- लोक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रनखने के उदेश्य से आयोजित लोकानुरंजक मेला जिसका आयोजन उदयपुरा में माणिक्यलाल वर्मा आदिम शोध संस्थान करता हैं लोकाई- आदिवासियों द्वारा मृत्यु के अवसर पर दिया जाने वाला भोज । जिसे कांडिया भी कहते है । जनजाति के विकास को प्रयासरत संस्थाएं -राजस्थान जनजाति क्षेत्रीय , विकास सहकारी संघ ( राजरा संघ ) स्थापना राजस्थान 27 मार्च 1976 उदेश्य- उचित मूल्य पर दैनिक उपभोग की वस्तुएं उपलब्ध कराना व कृषि व वनोपज का समुचित मूल्य दिलाना । -अनुसुचित जाति , जनजाति वित एवं विकास सहकारी निगम स्थापना 28 फरवरी 1980 को अनुसूचित जाति विकास निगम नाम से । इसका वर्तमान नाम 24 सितम्बर 1993 से ।
महाराष्ट्र राजय के मूल निवास इस जनजाति के लोग उदयपुर जिले की कोटडी झाडोल एवं सराडा पंचायत समिति क्षेत्र में निवास करती हैं कत्था तैयार करने का कार्य करने के कारण यह कथौडी कहलाते है । कथोडी जनजाति के लोग नाममात्र के कपडे पहनते है । पुरूष केवल लंगोट पहनते हैं स्त्रियां कमर पर फडका ( मराठी अंदाज में साडी ) पहनती है । शराब बहत प्रिय पेय पदार्थ है । महुए की शराब बनाकर पीते हैं स्त्रियां भी पुरूषों के समान शराब पीती है । शव को दफनाने का रिवाज है । कथौडी जनजाति घास – फूस व बांस का बना छोटा झोंपडा खोलरा कहलाता है । कंजर कंजर शब्द संस्कृत भाषा के शब्द काननाचार का अपभ्रश हैं जिसका अर्थ है जंगल में विचरण करने वाला । अपराध वृति के लिए कुख्यात जनजाति राजस्थान में कोटा , बोरां , बूंदी . झालावाड , भीलवाडा . उदयपुर . एवं अजमेर में निवास करती हैं मंजर जाति का मुखिया पटेल कहलाता हैं हाकम राजा का प्याला पीकर कसम खाने के बाद कंजर जो भी बात करता हैं वह सच्ची होती हैं मोर का मांस प्रिय है ।
कंजर जनजाति के घरों में दरवाजे नहीं होते है । हनुमानजी और चौथमाता इनके आराध्य देव है । आजीविका- चोरी , डकेती , लूटमार है ।
जनजातियों की विशिष्ट परम्पराएं
मौताणा- आदिवासी की संदिग्ध परिस्थिति में मृत्यु हो जाने पर आरोपी से वसूली गयी राशि मौताणा राशि कहते है । नातरा प्रथा- किसी स्त्री के द्वारा अन्य पुरूष के साथ जीवन बिताने हेतु समझौता करना । दापा- वर पक्ष द्वारा कन्या के पिता को दिया गया वधू मूल्य । छेडा फाडना ( तलाक ) -भील या मीणा जनजाति में पत्नी त्यागने की प्रकिया पति द्वारा पत्नी के साडी का पल्ला फाडकर स्त्री को दे देता है । जिसे छेडा फाडना कहते है । झगडा राशि- आदिवासी पुरूष द्वारा किसी दूसरे की पत्नी को भगा ले जाने पर पंचायत के द्वारा तय राशि उस स्त्री के पति द्वारा वसूली जाति है । उसे झगडा राशि कहते है । वार- जनजातियों में विपति आने पर संदेश ( मारू ढोल बजाकर ) भराडी- भील जनजाति में लोकचित्रण की परम्परा में दीवार पर लोकदेवी भराडी का चित्र बनाया जाता हैं इसे भीत भराडी भी कहते है । ळलमा ( हीडा या हांडा ) आदिवासियों में प्रचलित सामूहिक सहयोग की परम्परा । हमेलो- लोक संस्कृति को अक्षुण्ण बनाए रनखने के उदेश्य से आयोजित लोकानुरंजक मेला जिसका आयोजन उदयपुरा में माणिक्यलाल वर्मा आदिम शोध संस्थान करता हैं लोकाई- आदिवासियों द्वारा मृत्यु के अवसर पर दिया जाने वाला भोज । जिसे कांडिया भी कहते है । जनजाति के विकास को प्रयासरत संस्थाएं -राजस्थान जनजाति क्षेत्रीय , विकास सहकारी संघ ( राजरा संघ ) स्थापना राजस्थान 27 मार्च 1976 उदेश्य- उचित मूल्य पर दैनिक उपभोग की वस्तुएं उपलब्ध कराना व कृषि व वनोपज का समुचित मूल्य दिलाना ।
उदेश्य- अनुसूचित जाति जनजाति के आर्थिक विकास हेतु । –माणिक्यलाल वर्मा आदिम जाति शोध एवं प्रशिक्षण संस्थान , उदयपुर स्थापना- 2 जनवरी 1964 उदेश्य- जनजाति विकास के क्षेत्र में अनुसंधान एवं प्रशिक्षण द्वारा विकास । वनवासी कल्याण परिषद , उदयपुर उदेश्य- जनजाति लोंगो में चेतना का संचार करना तथा इनकी सहायता करना । विशेष- ‘ वनवासी को गले लगाओं अभियान ‘ इसी संस्थान ने चलाया था ।